फुटपाथ पर जिंदगी कहानी
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✍️ मनोरंजन कुमार सिंह, कोटा, राजस्थान
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/// जगत दर्शन न्यूज
"साहब! आज आपके जूते ऐसे चमकाएंगे कि सामने वाले को उसमें चेहरा दिखने लगेगा।" यूं तो प्रायः मैं रंगलाल से जूते पॉलिश कराया करता था लेकिन आज कुछ विशेष लग रहा था मुझे। जूते पॉलिश करते हुए वह मेरी तरफ बार बार किसी विशेष मांग की दृष्टि से देखे जा रहा था। मैंने पूछ ही लिया कि भाई आज कुछ विशेष है क्या?
चालीस साल पहले अहमदाबाद की गलियों से भागकर रंगलाल अजमेर आया था। बच्चों के संग खेलते हुए उसने किसी दूसरे बच्चे को ऐसे धक्का दे दिया था कि सिर के बल गिरने से उसकी मौत हो गई थी और फिर उसकी सजा की डर से वह तुरंत ही भाग निकला था। किसी तरह भागते हुए अनजाने शहर अजमेर पहुंचकर चौराहे पर जूते पॉलिश करने का काम शुरू कर लिया था। उसकी बातें चल ही रही थी कि मेरी नजर जूतों चप्पल के ढेर में एक तरफ रखी रोटी बनाने वाली चकली और बेलन पर पड़ी। फिर उसी के पास एक छोटी सी कढ़ाई भी दिखी। मुझे समझते देर नहीं लगी कि बेचारे रंगलाल के जीवन का सारा रंग उसी दो गज के फुटपाथ पर ही सिमटा था। पास में ही भगवान का एक दो फोटो भी रखा था लेकिन बेजां ही इंसान अपनी गलती का साया दूसरों यानी भगवान पर मढ़ने की गलती करता चला जाता है। आखिर उन्हीं भगवान का फोटो उस चौराहे की दूसरी तरफ आसमान से बातें करते महलों में रहनेवालों ने भी लगाया होगा। अंतर सिर्फ इतना है कि मेहनत के साथ महलवालों ने बचत कर जीवन की राह आसान कर ली और रंगलाल जैसे लोगों ने मेहनत में बचत के गुड़ डालने के बजाय बुरी आदतों का नमक डालकर जिंदगी की मिठास को कड़वाहट में बदल दिया।
समय की सुई घूमती रही, बरस पर बरस बीतते गए और अब तो जीवन की भले ही संध्या नहीं आई हो लेकिन दोपहरी की घुप में जीवन का यह पौधा अवश्य ही फुटपाथ पर बिना किसी छत वाली छाए के झुलसने को मजबूर था। वहीं सोना, वहीं खाना और बस वही फुटपाथ की जिंदगी चलती रही। प्रकृति ने अवश्य ही इंसान की फितरत में उसकी तकदीर लिखने का मिजाज उसी पर छोड़ा है। तभी तो कोई खाक से लाख तक पहुंच जाता है और कोई खाक से इंच भर भी खिसक नहीं पाता है। रंगलाल के हाथों की लकीरें भी शायद उन्हीं खाक की खाक में बने रहने वाली आड़ी तिरछी बनी थी। तभी तो उसे शराब की लत ऐसी लगी कि दिनभर में जो पैसे इकट्ठा होता वो शाम को उस रंगीन पानी के साथ बह जाता। बहती हुई धारा में कभी भी पानी रुकता नहीं है और रंगलाल की जीवन धारा में भी वही बहाव उसके जीवन की मिट्टी को पानी के साथ बहने से रोक ही नहीं पाया। तभी तो उसे कभी चौराहे के फुटपाथ से उठकर सड़क के उसपार एक झोपड़ी बनाने की समझ नहीं आई। नहीं तो अवश्य ही दो दो पैसे बचाकर कहीं भी एक कच्चा ही सही पर मौसम की मार से बचने के लिए एक झोपड़ी तो इंसान खड़ा कर ही लेता है।
जीवन का पहिया घूमता जाता है... यदि उस पहिए के नीचे हाईवे वाली समतल रोड मिल जाती है तो वह एक सौ अस्सी की स्पीड से बिना किसी ब्रेक के सरपट दौड़ती है जो उस चौराहे की दूसरी तरफ महलवालों की थी। लेकिन उसी पहिए के नीचे यदि रेगिस्तानी बालू की रेत ही रेत हो तो फिर काहे कि स्पीड। परन्तु वह पहिया उस रेत में भी घूमती ही जाती है... भले ही चालीस वर्षों में रंगलाल का पहिया दो कदम की दूरी तय नहीं कर पाई हो। अब सर्दी शुरू हो रही थी और रंगलाल के गरम कपड़े पिछली बरसात के भेंट चढ़ गए थे। इसलिए उसने प्लान करी कि सुबह में ऑफिस जाने वाले साहब बराबर आते हैं। बातें भी करते हैं और क्यों न उन्हीं से कुछ पुराने कपड़े मांग लूंगा। इसी वजह से उसने पहले तो अपनी दुख भरी दास्तान सुनाई और फिर आंखों में आंसू लिए मुझसे कुछ फटे पुराने कपड़े देने की गुजारिश की। जीवन के इस बेरंगेपन ने मुझे भी अंदर तक झकझोर दिया था। फिर मैंने कई सारे पुराने गरम कपड़े तो रंगलाल को दिए ही। साथ में अपने दोस्तों के साथ मिलकर उसके लिए कम्बल की भी व्यवस्था की। आज भी जब अजमेर की याद आती है तो रंगलाल का चेहरा अवश्य याद आता है...।

