ईश्वर : सर्वत्र है सर्व व्यापी है
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✍️डॉ. कंचन मखीजा, रोहतक, हरियाणा, 9991186186 /// जगत दर्शन साहित्य |
प्रत्येक प्राणी और वस्तु में ईश्वर का अंश है। ईशोपनिषद में कहा गया यह वाक्य “ईशावास्यमिदं सर्वं” केवल दार्शनिक विचार नहीं, बल्कि सुखी जीवन को जीने का एक तरीका है। जो चिरकाल से स्थायी है। ऐतरेयोपनिषद का संदेश है - “प्रज्ञानं ब्रह्म” अर्थात् चेतना ही ब्रह्म है।
वेद-उपनिषद, विभिन्न धर्मों के ग्रंथ, संतों की वाणी और अब आधुनिक विज्ञान ने भी इस सत्य को स्वीकार कर लिया है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ऊर्जा और पदार्थ (energy & matter) शाश्वत हैं। वे नष्ट नहीं होते, केवल रूप बदल लेते हैं।
संपूर्ण सृष्टि में जो भी वस्तु हमें दिखती है, वह इन्हीं पंचमहाभूत तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) से बनी है जिनका मूल ईश्वर है। वेदांत भी यही कहता है कि यह ऊर्जा वह सर्वव्यापी चेतना है जो निर्गुण और सगुण दोनों रूपों में बह रही है। जिसमें नियम, संतुलन और जीवन-शक्ति दिखाई देती है। इसका आशय यह हुआ कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का ईश्वर ही उद्गम है और वही स्त्रोत।
जब हम यह मान लेते हैं कि प्रत्येक प्राणी में ईश्वर का अंश है, तो हमारी बुद्धि किसी को भी तुच्छ नहीं समझती। अहिंसा, दया, करुणा और सेवा भाव स्वतः ही जीवन में विकसित होने लगता है और हर तरह का भेदभाव मिटाकर और यह समझ कर कि सभी उसी के अंश स्वरूप हैं, तो सभी को सम आदर भाव से देखना शुरु कर देते हैं। अंततः जीवन में संतोष, सुख व शांति का उदय होता है।