चालू मौसम में बारिश से किसान निहाल, पुरानी यादें हुई ताजा!
✍️सत्येन्द्र कुमार शर्मा
"आद ना बरसे आद्रा अन्त ना बरसे हस्त, कहे घाघ घाघीन से का खईहें गृहस्थ।"
शुक्रवार के शाम को हथिया नक्षत्र के आगमन के साथ ही पूरे बिहार में मौसम का मिज़ाज बिल्कुल बदल सा गया है।
तकरीबन 25 दिनों के लम्बे अन्तराल के बाद 24 सितंबर से इन्द्रदेव की कृपा दृष्टि धरती के लोगों के लिए खुल गई और गर्मी एवं धूप से त्रस्त बिहार को एक अत्यंत खुशनुमा माहौल मिल गया है।
समाजसेवी राजेश्वर कुंवर ने यादें ताजा करते हुए बताया कि बीते कल रात से ही पंखे की हवा में ठंडी उतर आई है और आज संध्या में हथिया नक्षत्र की वर्षा प्रारंभ हो गई है तथा ठंडी हवा बहने लगी है। हमारे बड़े बुजुर्ग कहते थे हथिया में आसमान से पानी नहीं बल्कि अमृत बरसता है। हथिया नक्षत्र का पानी न केवल धान की फसल के लिए बल्कि रवि फसल के लिए भी अत्यंत लाभकारी होता है। हम लोग जब बच्चे थे तो उस जमाने में बाप दादा के लगाये घने बागीचे हर गांव में थे, घने जंगल थे, गाड़ियां कम थी और प्रदूषण कम था। आसमान के रंग आज की अपेक्षा ज्यादा नीला था। मनमोहक इन्द्रधनुष सुबह में अथवा शाम में अवश्य लगता था। अब तो इन्द्रधनुष सपना सा हो गया है। कभी इन्द्रधनुष दिखता भी है तो अत्यंत फीका। तब जलावन से हर घर में रसोई बनती थी। और जहाँ खाना बनाया जाता था उस घर को रसोईघर कहा जाता था। रसोईघर की पवित्रता देवालय से कम नहीं था। बिना हाथ पैर धोये कोई भी रसोईघर में घूस जाय ऐसा मजाल नहीं था। हथिया नक्षत्र सोलह दिन का होता है। सोलह दिन के लिए जलावन एवं खरची " खाने पीने के समान " की व्यवस्था हर परिवार में कर लिया जाता था। हथिया नक्षत्र का झापस सबको डराता था। सोलह सोलह दिन के आफत भरे दिनरात हुआ करते थे। कभी कभी तो मौसम की बारिश के कारण भोजन भी नहीं बन पाता था।
कुछ लोग तो मकई का बाल " भुट्टा " खाकर ही चैन की नींद सो जाया करते थे। किन्तु मन में उन दिनों दुख नहीं, खुशी और आनन्द से बीतते थे। हथिया नक्षत्र के सोलह दिन मकई, मसुरिया, सांवा, कोदो, टेंगुनी के भात और झिंगुनी की तरकारी के स्वाद का क्या कहना? छप्पन भोग भी फींका लगता था जो अब लोगों को नसीब नहीं होता हैं। मकई को ओखल में कुटकर भात बनता था और भैंस के दूध अथवा दही के साथ खाने में अलग ही इतना आनन्द आता था जो कि देवलोक के देवता भी कुटे हुए मकई का भात एवं सांवा के चावल का खीर खाने के लिए तरसते थे। उक्त भोज्यपदार्थ के सेवन के समय भले ही गरीबी ज्यादा थी किन्तु लोग काफी निरोगी एवं बलवान हुआ करते थे। हाँ गरीबी में भी मन में अमीरी का वास हुआ करता था आपसी सौहार्द रहता था। आज हमारे पास सब-कुछ है किन्तु कुछ भी अपना नहीं है।
अपना खानपान, अपनी खेत की अनाज, अपनी खेत की सब्जी, अपनी भैंस एवं गाय के दूध दही , सब-कुछ समाप्त हो गए हैं।आधुनिकता के चक्कर में सब-कुछ प्रदूषित, सब-कुछ मिलावट से परिपूर्ण हो गया है। अब तो भगवान् के भोग भी दूषित हो गये है जिसकी चर्चा सोशल मीडिया पर व्यापक पैमाने पर देखने व सुनने को मिल रहा है।आज के भोज्यपदार्थ के सेवन से बी पी, सुगर को आम बीमारी का दर्जा मिल गया है। तब तक कम उम्र में ही दिल आदमी को धोखा देने लगा है।
दिल देने एवं लेने की उम्र में ही दिल का बैठना चिंता का विषय बनता जा रहा है और इसके मूल में केवल और केवल आदमी ही है जिसने अपने खुशहाल जीवन में मुसीबतें खड़ी कर ली है। सुख ,पैसा, पद एवं प्रतिष्ठा के अधीन नहीं है यह तो अन्दर की चीज है क्योंकि बड़े बड़े पैसे, पद एवं प्रतिष्ठा वाले लोगों को आत्महत्या तक करते देखा जाता है। आंख बन्द करके आधुनिकता की ओर दौर लगाना मानव जाति के लिए भारी पड़ सकता है।