सदाएं मुझे न दो- मेंहदी हसन
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मेंहदी हसन |
संकलन : धर्मेंद्र रस्तोगी
हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे के बाद मुफलिसी के दिनों में उनके पिता ने उन्हें दस रुपए देकर कहा कि चलो लकड़ी की टाल चलाओ। मजबूरी में कुछ दिन तक उन्होंने यह किया भी । लेकिन यह काम उनको जंचता न था। मन नहीं माना तो एक दिन वह चले गए रेडियो पाकिस्तान में ऑडिशन देने। सुबह दस बजे से शाम के पांच बजे तक रेडियो वालों ने उनसे ठुमरी,दादरा, ग़ज़ल वगैरह सुनते रहे ,मगर तय नहीं कर सके कि इन्हें शास्त्रीय संगीत की किस एक विधा में आर्टिस्ट माना जाए। अंत में स्टेशन डायरेक्टर ने खुश होकर कहा कि बाकी लोगों को हम बीस रुपए देते हैं, मगर मेहंदी ! तुम्हें हम पैंतीस रुपया दिया करेंगे, और तुम रेडियो के लिए सब कुछ गाओ। बस यहीं से उनके मौसिकी का सफ़र शुरू हो गया।
लाहौर में किसी पान की दुकान पर मैडम नूरजहां ने मेहंदी हसन साहब की आवाज़ सुनी थी। ग़ज़ल थी - 'यह धुआं सा कहां से उठता है'। उन्होंने उस चौराहे की कई चक्कर काट लिए, मगर समझ में नहीं आया कि यह आवाज़ कहां से आ रही है ? कौन गा रहा है ? तब पान वाले ने अपनी मेज के नीचे से रेडियो निकाल कर कहा - इस पर कोई मेहंदी हसन नाम का लड़का गा रहा है। मलिका -ए- तरन्नुम जौहरी थीं । मेहंदी हसन जैसे हीरे को ढूंढने में उन्होंने ज़रा भी देर न की । और फिर दोनों ने साथ में कई नगमे गाए। मल्लिका-ए- तरन्नुम नूरजहां कहती थीं कि- 'किसी ने मोती दान किए हों तब खानदान में मेहंदी हसन जैसा चिराग पैदा होता है। और अगले तीन-चार सौ सालों तक तो कोई दूसरा मेहंदी पैदा होने से रहा'। लता जी जब स्टूडियो में अक्सर मेहंदी हसन की ग़ज़लें गुनगुनाया करती तो रफ़ी साहब चिढ़ जाया करते । तब लता जी ने उनसे कहा कि मेरी तो आख़िरी ख्वाहिश ही यही है कि कभी मेहंदी हसन साहब के साथ कोई गीत गा पाऊं।
इतने बड़े-बड़े फनकार उनके मुरीद थे, यह कोई छोटी बात नहीं है। मेहंदी हसन साहब ने इस मुकाम तक पहुंचने के लिए बहुत मेहनत की। उनके बाप-दादा रामपुर रियासत के गवैये थे। नवाब के साहबजादों के साथ जब छोटे मेहंदी को भी स्कूल-कॉलेज भेजने की बात हुई तो उसने साफ़ इनकार कर दिया कि उसे तो सिर्फ़ और सिर्फ़ गायिकी सीखनी है। मेहंदी हसन बताया करते थे कि बचपन में उनकी गर्दन एक तरफ झुकी रहती और वह मन ही मन रियाज़ करते हुए अपनी धुन में चलते रहते। उनके वालिद के जानने वाले अक्सर पूछा करते- तुम्हारा वह छोटा लड़का कुछ पागल है क्या ? मगर मैंने कभी किसी के मज़ाक पर कोई ध्यान नहीं दिया और मौसिकी को ही अपना ख़ुदा जाना।
मेहंदी साहब का जन्म राजस्थान के झुंझुनू जिले के लूणा गांव में 18 जुलाई को हुआ था। भारत-पाकिस्तान दंगों के बीच अपनी फूफी के घर वह गए तो फिर हिंदुस्तान वापस आ न पाए । अपनी जन्मभूमि को देखने की कसक हमेशा दिल में उठती रहती थी। लगभग तीस बरस बाद उनका एक कार्यक्रम झुंझुनू में आयोजित हुआ। अपने गांव के पास आते हैं मेहंदी साहब इतने जज़्बाती हो गए कि कार से उतरकर वहां की ज़मीन को चूमने लगे , मिट्टी में लोटपोट होने लगे कि कभी इस गांव में मेरा बचपन बीता था, यहां मेरे यार हैं, यहां मेरे दोस्त हैं। उन्हीं धूल भरे मिट्टी सने कपड़ों में उन्होंने उस प्रोग्राम में शिरकत की। यूं समझिए कि उस रात झुंझुनू में पूरा राजस्थान जुट गया था। मेहंदी साहब के शो में दो लाख से भी ज्यादा रुपए इकट्ठा हो गए। मेहंदी साहब ने उसमें से एक भी पैसा नहीं लिया और गवर्नर साहब को कहा कि जब यहां सड़क बनने लगे तो यह उसमें मेरी तरफ़ से खिदमत समझिएगा। तीन दिन के भीतर ही सरकार ने गांव में बिजली पंहुचा दी और सड़क भी बनवा दी।
मेहंदी हसन साहब का पूरा जीवन सिर्फ़ और सिर्फ़ मौसिकी के लिए समर्पित रहा। दुनिया में अभी और न जाने कितनी ग़ज़लें लिखी जाएंगी और उनको गाने वाले भी पैदा होंगे मगर मेहंदी जैसा फनकार न कभी पहले हुआ था और ना अब होगा।