व्यथा!: किरण बरेली
जज्बातों में उलझा दिल जब व्यथा सुनाता है तो बेजुबान हो जाता है कभी कभी!-किरण बरेली
जज़्बात भी बेज़ुबानी ओढ़ लेते है!
लेकिन दिल तो सुलगता है!
मिली नाकामियो पर,
अकुलाहट होती है।
झूठ के फैले बाजार में,
सच्चाई अपना गला घोट लेती है।
घुटन माहौल की व्यथा की पीड़ा,
कम शब्दो में।।
व्यथा!
धूप में तपिश,
तपिश सफर मिला।
चाँदनी की रूमानी छाँव कैसे लिखूँ।
एक-एक लफ्ज पर पाबंदी लगी है,
हकीकत जिंदगी की कैसे लिखूँ?
गीतों की लिखी दास्तां भी
पढ़ी न गयी,
हाले-दिल किस किस तरह लिखूँ।
थकन सताने लगी है दुनियादारी से,
नये-नये हुनर जीने के कैसे लिखूं।
सच बिक गये झूठे फरेबी बाजार में,
ईमान कसमों की ज़बानी कैसे लिखुँ?
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