रंग उड़ा ले मौज भर, बिखरी सरस बहार!
रचना: मनोज द्विवेदी
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रंग उड़ा ले मौज भर, बिखरी सरस बहार।
कभी नहीं यह भूलना, फागुन के दिन चार।।
खिलती कलियाँ झूमती, हँसते हुए प्रसून।
उपवन मुखरित हो रहा, नहीं रहा अब सून।
माली प्रमुदित गूँथता, शत पुष्पों का हार।
कभी नहीं यह भूलना, फागुन के दिन चार।।
क्यारी में फसलें लगी, स्वर्णिम दिखे सिवान।
उल्लासित कोकिल मगन, गाती मीठा गान।
सब पर यौवन छा रहा, कसे हुए हर तार।
कभी नहीं यह भूलना, फागुन के दिन चार।।
गौर किया क्या आपने, जब आता है जून।
मातु प्रकृति नव सृजन हित, देती सबको भून।
अभी समय है सोचना, कैसे हो उद्धार।
कभी नहीं यह भूलना, फागुन के दिन चार।।
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रचना: मनोज द्विवेदी