छठ पूजा: सूर्य की अराधना का स्त्रोत
/// जगत दर्शन न्यूज
छठ पूजा, जिसे सूर्य षष्ठी भी कहते हैं, केवल एक त्यौहार नहीं अपितु भारतीय जीवन-दर्शन का सबसे गहन सत्य - 'अनंत चक्र' का प्रदर्शन है। यह पर्व अस्ताचलगामी और उदयमान सूर्य दोनों को समर्पित है, जो स्वयं में ही आस्था, समर्पण और प्रकृति के साथ सामंजस्य का एक अनूठा संगम है। छठ पूजा व अराधना सूर्य यानि ब्रह्मांड अथवा पुरुष। और छठी मैया यानि शक्ति अथवा प्रकृति दोनों की एक साथ पूजा है। जहाँ सूर्य चेतना, ज्ञान और निराकार ब्रह्म के प्रतीक हैं, वहीं छठी मैया (जिन्हें सूर्य की बहन माना जाता है) सृष्टि का पालन-पोषण करने वाली शक्ति, साकार मातृ-स्वरूप हैं दोनों द्वैत और अद्वैत का अद्भुत मेल है, एक ही सत्य के दो पहलू। भक्त इस सत्य को अनुभव करता है कि ऊर्जा और शक्ति, चेतना और सृष्टि अलग-अलग नहीं हैं।
छठ पूजा का दर्शन भारतीय चिंतन की उन मूलभूत अवधारणाओं को स्पर्श करता है, जो मनुष्य और ब्रह्मांड के बीच के रिश्ते को परिभाषित करती हैं। इसकी जड़ें भारत के प्राचीन सनातन इतिहास संस्कृत मूल से जुड़ी है वैदिक काल से यह पर्व मूलतः 'सूर्योपासना' का हिस्सा है। ऋग्वेद में सूर्य देवता की अराधना के मंत्र मिलते हैं, जिन्हें छठ के समय गाया जाता है। सूर्य को समस्त ऊर्जा और जीवन का स्रोत माना गया है। त्रेतायुग में जब भगवान राम अयोध्या लौटे, तो उन्होंने और माता सीता ने राज्यभिषेक के बाद ब्रह्मा मुहूर्त में उगते सूर्य की उपासना की और आशीर्वाद प्राप्त किया। इसी घटना से छठ पूजा की शुरुआत हुई है, ऐसी मान्यता है। महाभारत काल की एक अन्य प्रचलित कथा कर्ण से जुड़ी है। कर्ण, जो सूर्यपुत्र थे, प्रतिदिन घंटों जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे और दान देते थे। इसी तरह, द्रौपदी और पांडवों ने भी अपने कष्टों को दूर करने के लिए सूर्य की आराधना की थी। ये ऐतिहासिक संदर्भ दर्शाते हैं कि छठ का त्यौहार सदियों से भारतीय जनमानस की आस्था और जीवन-शैली का अभिन्न अंग रहा है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी का समय, जब वातावरण में हानिकारक कीटाणुओं का प्रभाव कम होता है और सूर्य की पैराबैंगनी किरणें स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होती हैं। नदी के जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देने से शरीर को ऊर्जा मिलती है और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। यह पर्व सामाजिक समरसता को भी बढ़ावा देता है, जो सभी सामाजिक बंधनों से परे है। इसमें कोई पुरोहिती नहीं होती; हर व्यक्ति स्वयं अपनी आराधना करता है। धनी-निर्धन, उच्च-निम्न सभी एक ही घाट पर खड़े होकर एक ही देवता की पूजा करते हैं। प्रकृति के प्रति यह अराधना एक कृतज्ञता का भाव है। जल,वायु, अग्नि (अर्घ्य), आकाश और मिट्टी,पंचतत्वों का समावेश है जो मनुष्य को यह याद दिलाता है कि उसका अस्तित्व प्रकृति पर निर्भर है।
जिस प्रकार सूर्य अस्त होकर पुनः प्रकट होता है, उसी प्रकार आत्मा भी शरीर का त्याग कर नए रूप में जन्म लेती है। यह दृष्टि मृत्यु के भय को समाप्त कर जीवन के प्रति एक विराट और शांतिपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करती है। छठ पूजा की परंपरा व रीतियाँ अहंकार के विसर्जन का पाठ पढ़ाती हैं। घाट पर जाकर, हाथ में सूप उठाकर, सूर्यदेव के समक्ष नतमस्तक होकर, मनुष्य अपने अहम् को तिलांजलि देता है। यह समर्पण का भाव है कि स्वयं को ब्रह्मांड की उस विशाल ऊर्जा के सामने छोटा समझना, जिसके बिना हमारा अस्तित्व ही नहीं है। छठ की साधना तपस्या और आत्मानुशासन का प्रतीक है। शरीर और मन को कठोर अनुशासन में रखकर, इंद्रियों को नियंत्रित करके, व्यक्ति अपनी आंतरिक ऊर्जा को केंद्रित करता है। यह तपस्या केवल मनोकामना पूर्ति के लिए नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि और आत्मबल को बढ़ाने के लिए भी की जाती है। यह दर्शन कहता है कि सांसारिक सुखों की अति से दूर, संयमित जीवन ही वास्तविक आनंद की ओर ले जाता है। यह पूजा कर्म के शुद्धतम रूप का प्रदर्शन है। यह सिखाता है कि ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग निष्ठापूर्वक किए गए कर्म से होकर जाता है। छठ पूजा भारतीय संस्कृति की वह अनुपम धारा है जो हमें याद दिलाती है कि हम प्रकृति से अलग नहीं, बल्कि उसका अंग हैं। यह त्यौहार हमें जीवन के उस आधारभूत सत्य से जोड़ता है, जहाँ कर्म, आस्था, विज्ञान और दर्शन एक ही माला के मोती बन जाते हैं। यह केवल सूर्य की पूजा नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर छिपे उस 'ज्योतिर्मय आत्मतत्त्व' की खोज है, जो संपूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित कर रहा है। इस अर्थ में, छठ पूजा भारतीय जीवन-दर्शन का एक सारगर्भित, मूर्त और अत्यंत प्रभावशाली स्वरूप है।


