गांधीजी के सपनों का ताजपुर खादी ग्रामोद्योग झेल रहा बदहाली की मार
सारण (बिहार) संवाददाता वीरेश सिंह: जिस स्वावलंबी समाज की परिकल्पना महात्मा गांधी ने की थी, उसी दिशा में कदम बढ़ाता था मांझी प्रखंड के ताजपुर स्थित खादी ग्रामोद्योग संस्थान। वर्ष 1957 में स्थापित यह संस्थान गांधीजी के विचारों और सिद्धांतों पर आधारित होकर वर्षों तक हस्तकरघा और चरखे से सूती वस्त्र उत्पादन का केंद्र बना रहा। आज भी यहां चरखे और करघे पर सूती धागे की बुनाई की मशीनें देखने को मिलती हैं। भवन के साथ साथ इन मशीनों के हालात बद से बदतर हो चुका है।
संस्थान में लंबे समय से सेवा दे रहे अभय कुमार सिंह बताते हैं कि यहां का उद्देश्य केवल खादी उत्पादन ही नहीं, बल्कि बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराना भी रहा है। किसान से कोकून खरीदे जाने से लेकर सूत निकालने, चरखे व करघे पर कपड़ा बुनने और फिर फिनिशिंग तक की पूरी प्रक्रिया हाथ से होती थी। इस कारण यहां बड़ी संख्या में मजदूरों और बुनकरों को काम मिलता था। गांधीजी के स्वावलंबी समाज की झलक इस संस्थान में स्पष्ट दिखती थी।
लेकिन आज यह संस्थान बदहाली की स्थिति में पहुंच गया है। कभी जहां सुबह की शुरुआत गांधीजी के भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ और ‘रघुपति राघव राजा राम’ की गूंज से होती थी, वहीं आज कर्मचारी आर्थिक तंगी और उपेक्षा का सामना कर रहे हैं। सरकारी उदासीनता और लापरवाही ने इस संस्थान की रौनक फीकी कर दी है।
ताजपुर का यह खादी ग्रामोद्योग संस्थान कभी हथकरघा उद्योग का प्रमुख केंद्र रहा करता था और बड़ी संख्या में बेरोजगार युवाओं को काम देकर गांधीजी के सपनों को साकार करता था। लेकिन आज वही संस्थान धीरे-धीरे अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है और गांधीजी के सिद्धांतों पर चलने का संकल्प कमजोर पड़ता जा रहा है।