पश्चानुताप (कहानी)
/// जगत दर्शन न्यूज़
गौ धूली की बेला। रामशरण अपने घर के आँगन में रखे चारपाई पर स्मृति धाराओं से घिरा लेटा पड़ा था। आँखें डबडबाई हुयी थी। ओठ थरथरा रहे थे, शायद इन्तजार था किसी कन्धे का, जिस पर अपना सिर रख रो कर हल्का कर सके अपने भारी मन का पीर।
यह तो स्मृति है, यहाँ कुछ अधुरा नहीं रहता। जैसा बोया है वैसा ही काटना है। हमारे जीवन का कोई पल वापस नहीं आता। परन्तु अगर हम अपनी सूझ-बूझ से अपनी गलतियों को समय रहते सुधार ले तो शायद कुछ ठीक हो जाये।
अपने माता-पिता का इकलौता बेटा था रामशरण। पिता की कठिन परिश्रम के पश्चात् ही वह आज इतने बड़े व्यापार का मालिक हो गया था पर बच्चे यह कहाँ सोचते हैं.........। कितनी मेहनत करके पिता ने पहले अपने आप को फिर परिवार को सम्भाला और विरासत में हमें दी ये सब सुख सम्पत्ति। उन दिनों रामशरण स्कूल में पढ़ता था। पिता दीनदयाल जी खेती मजदूरी करके सारे खर्च चलाया करते थे। सम्पत्ति के नाम पर एक छोटा-सा घर ही था। दूसरों की जमीन जोतने पर उतना पैसा नहीं मिलता था कि और कुछ सोचा जा सके। रामशरण चाहता था कि वह दशवीं की पढ़ाई के बाद बाहर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिये जाए परन्तु दिनदयाल असमर्थ थे, लाख कोशिशों के बावजूद वह उसे पढ़ने के लिये बाहर भेज न सके। मन में आक्रोश लिये दुःखी मन से रामशरण आगे की पढ़ाई न कर सका और पिता के ही काम में हाथ बँटाने लगा। तब तक दीनदयाल उधार लेकर एक गाय ले आया था और घर में ही घी का छोटा-सा रोजगार शुरू कर चूका था। कड़ी मेहनत कर के वह अपने घी को बाजार में बेचा करता। धीरे-धीरे व्यापार बढ़ने लगा घी शुद्ध होने के कारण उसकी मॉंग हर दुकानों पर होने लगी। देखते-ही-देखते बाहर के शहरों से भी माँग आने लगी और व्यापार बढ़ता चला गया।
अब बाप बेटा मिलकर व्यापार को आगे बढ़ाते गये। घर के काम को बेटा सम्भालता। देखते ही देखते रोजगार इतना बढ़ गया कि दूसरे देशों से भी उनके प्रोडक्ट की माँग होने लगी। सब कुछ अब ठीक हो चूका था सब खुश रहते थे। पर घर में दीनदयाल की पत्नी अकेले रहती थी। उसका मन भी नहीं लगता था इसलिये एक बार उसने दीनदयाल से विवाह की बात उठायी। पति और बेटे की रजामन्दी से लड़की देखी गयी। एक लड़की पसन्द आ गयी। बड़े ही धूम-धाम से शादी हुयी। ऐसी बारात पूरे गाँव में किसी की न निकली होगी। सभी खुश थे। अब घर के आँगन में सुनैना के पायल की छम-छम की अवाज गुञ्जने लगी। अति सुन्दर, मीठी बोली, अपने अच्छे स्वाभाव के कारण वह थोड़ी ही दिनों में सब का मन जीत चूकी थी। समय बीतने लगा। चारों तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ! घर के आँगन में ढोलक और गीत की अवास से गाँव गूँज उठा। सुनैना ने एक सुन्दर बेटे को जन्म जो दिया था। घर अब घर-सा लगने लगा था। चारों तरफ चहल-पहल । बच्चे की किलकारी से घर रौशन रहता। समय यू ही बीतता गया। प्रियांश अब बड़ा हो गया था। वह जो चाहता उसके पिता उसकी हर चाहत को पूरा करते। जिन कष्टों का सामना रामशरण को करना पड़ा, पैसों के अभाव में उन कष्टों से वे अपने बच्चे को हमेशा दूर रखना चाहता था। पर. ..यह क्या?......... अपने बच्चे का ख्वाहिश पूरा करने के बाद एक धीरे से चूमन देने वाली आवाज में यह जरूर बोल देते कि मेरी तो इच्छा थी इंजीनियरिंग करने की पर, पापा.......। मैं तो हमेशा मन को मार कर ही जिया हूँ। तुम भाग्यशाली हो कि तुम्हें मेरे जैसा पिता मिला है। ऐसा पिता सब को कहाँ नसीब में। बड़बड़ाते हुये घर से बाहर चला जाता। यह सब बात जब दीनदयाल सुनता लेता तो वह दुःखी हो जाता था और आँखों से आँसू रूक नहीं पाते। बुढी हड्डी में अब इतनी शक्ति भी नहीं रह गयी थी कि अपने बेटे के तानों को सहन कर सके। प्रियांश घर में होने वाले इस ताने-बाने को देखता रहता, उसे अच्छी नहीं लगी और अपने दद्दू के आँसू पोछने चला जाता, जो रामशरण को अच्छा नहीं लगता था और वह बौखला जाता और घर में तू-तू मैं-मैं हो जाती शुरू।
ऐसा आय दिन शुरू होने लगा, यह कोई बड़ी बात नहीं है। क्रोध में आदमी अपना आपा खो देता है उस वक्त मुँह से क्या निकालेगा, कोई नहीं जानता। घर का माहौल एक दम से गन्दा हो जाता और उस छोटे से बच्चे के मन में इसका असर बहुत ही खराब पड़ने लगा। वह दुःखी रहने लगा उसकी मासूमियत जाने लगी। अब उसका मन पढ़ाई में भी नहीं लगता था। यह देखकर रामशरण चिन्तित हो गया। अब वह हमेशा कोशिश करता सब ठीक रहे। वह अपने बच्चे से बहुत प्यार करता था। लेकिन सच ही है- जो बातें मासूम के मन में एक बार घर कर लेती है वह कभी भी जाती नहीं। उसका दिमाग अब बहुत कमजोर हो गया था। इस माहौल से दूर रखने के लिये रामशरण ने प्रियांश को पढ़ने के लिये शहर भेज दिया। प्रियांश अब बाहर ही पढ़ाई करने लगा। किसी तरह वह पढ़-लिखकर वकील बन गया। धीरे-धीरे उसकी वकालत चमक गयी। वह शहर के नामी वकीलों में गिना जाने लगा। रामशरण और उसकी पत्नी सुनैना गाँव में ही अकेले रहते थे बेटे की कड़वी बोली के दुःख से दीनदयाल और उसकी पत्नी चार साल पहले ही गुजर चूके थे।
आज फिर वही दृश्य। सूना घर सूना आँगन! सुनैना ने कहा- सुनो जी, प्रियांश अब बड़ा आदमी बन चुका है। उसकी शादी करा देनी चाहिये। बाहर खाने का भी उसे कष्ट रहता है। आज शाम को उससे बात करियेगा । शाम होते ही पिता ने बेटे को कौल किया। रिंग होते ही उधर मोबाइल उठा- रामशरण बोलने लगा- बेटा, तेरी माँ चाहती है कि अब तेरी शादी कर दे. तू क्या कहता है? कहो तो लड़की देखें हम। मेरी पसन्द की लड़की से ही शादी होगी। कुछ तो बोल बेटा मोबाइल के दूसरे तरफ से आवाज आती है- बेबी देखो, तुम्हारे डैडी का कौल है। प्रियांश ने दूर से ही कहा- आया, बेब्स होल्ड पर रख दो ~~~~ सन्न, चारों तरफ सन्नाटा.....। फोन हाथों से नीचे गिर कर बिखर गया था। रामशरण के आँखों के सामने अन्धेरा छाने लगा। लड़खड़ाते कदमों से वह किसी तरह कुर्सी पर बैठ गया। पति की ऐसी हालत देख सुनैना दौड़ी। अजी क्या हुआ क्यों रो रहे हो? धीरे से रोते हुये रामशरण ने कहा- अब हमारी जरूरत नहीं हैं हमारे बेटे को, वह अपनी दुनियाँ बसा चूका है। माँ-बाप को बताना भी जरूरी नहीं समझा। अब सब खत्म, कुछ नहीं बचा हमारे जीवन में, बड़बड़ाते हुये वह उठ कर बिस्तर पर जा गिरा। सुनैना घबरा गयी। रामशरण के हृदय की धड़कन बहुत जोरों से चल रही थी। वह समझ गयी कि हॉर्ट का दौरा आया है। तुरन्त वह बेटे को फोन की- बेटा, तेरे पिता को हार्ट-अटैक आया है। तू तुरन्त आ जा। थोड़ी देर मौन रहने के बाद प्रियांश ने कहा- माँ. तुम सम्भाल लेना पापा को अभी हमारी फ्लाइट है, हनीमून की, तैयारी में लगे हैं, हम लौटकर बात करेंगे। किसी चीज की जरूरत हो तो कहना।
बेचारी माँ के हाथों से फोन गिर जाता है। फोन के चार टुकड़े हो जाते हैं रोती-चिल्लाती दुःखी सुनैना घर के बाहर मदद के लिये जाती है। सभी मिलकर रामशरण को डॉक्टर को दिखा देते हैं। कुछ दिनों बाद वह ठीक हो गया, परन्तु मानसिक पीड़ा के कारण सुनैना बीमार रहने लगी। इस हादसे ने माँ के हृदय को छलनी कर दिया था, जो अब जुड़ने का नाम ही नहीं ले रहा था। धीरे-धीरे उसका शरीर गलता चला गया और एक दिन वह सारी पीड़ा छोड़ भगवान के पास चली गयी।
अभी-अभी तो रामशरण उसकी चिता को आग देकर आँगन में रखी चारपाई पर रोते-रोते लेटा था और सोच रहा था कि जिस बेटे के खुशी के लिये मैंने सब कुछ किया वही बेटा आज माँ के मरने पर भी अग्नि देने नहीं आया। किन पापों की सजा मुझे मिल रही है, प्रभु मुझे भी उठा ले कह ही रहा था कि अचानक सड़क से आती शोर से उसका ध्यान टूटा। वह अपने आप को सम्भालते हुये सड़क पर लगी भीड़ की तरफ पहुँचा। देखता क्या है कि बाइस वर्ष का एक नवजवान बेटा अपने पिता को डण्डे से पीट रहा था और बूढा बाप लोगों से मदद की भीख माँग रहा था और चिल्ला कर कह रहा था कि यह मुझसे घर के पेपर पर साइन करवाना चाहता है। घर, कैसे कर दूँ साइन। मैं कहाँ जाऊँगा? मुझे बचाओ मुझे बचाओ...।
अब यह देख कर रामशरण की रूह तक काँप गयी और अश्रुपूरित नैनों से वह पश्चाताप की अग्नि में जलता हुआ ईश्वर की तरफ ऊपर मुँह कर टकटकी लगाये देखता रहा और अपने पिता के सभी त्याग और खुद से दिये गये सारे कष्ट याद करने लगा। शायद कोई माँफी मिल जाय और सब ठीक हो जाय। उसे याद आ रहा था कि कैसे वह अपने पिता के उन मजबूरियों को नहीं देख पा रहा था. जिस कारण वह उसकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये। आज उसे सिर्फ उनकी सारी अच्छाइयाँ, मेहरबानियाँ याद आने लगी। आँखों से न रूकने वाले पाश्चाताप के आँसू आज गिर रहे थे जो अब किसी काम के नहीं थे। चाह कर भी रामशरण कुछ नहीं कर सकता था क्योंकि जो वक्त चला जाता है वह वापस नहीं आता, चारो तरफ मानसिक सन्नाटा था और मानसिक पश्चानुताप ।
आह....! आज धरती पर से इन्सानियत कहाँ खो गयी है? क्यों लोग सिर्फ दूसरों से उम्मीदें रखते हैं? क्यों खुद आगे बढ़कर अपना फर्ज पूरा नहीं करते? क्यों यह नहीं सोचते कि हममें जो आज ताकत और जो हमारा अस्तित्व है यह सिर्फ और सिर्फ हमारे माता-पिता की ही बदौलत है। आज हम जो बोयेंगे वही कल काटेंगे, यह हमेशा याद रखना चाहिये, वरना यह सिलसिला चलता रहेगा। आज हमने माता-पिता को कष्ट दिया, कल हमारे बच्चे हमें कष्ट देंगे, फिर उनके बच्चे..... कभी न खत्म होने वाला सिलसिला। रूक जाओ, अब भी वक्त है। सम्भल जाओ। अपने कल को खुशहाल बनाने के लिये आज अपने फर्ज को निभाओ। खुद सोचो और सही राह चुनो।