रक्षा सूत्र के सांस्कृतिक मूल्य
भारतीय दर्शन में "संबंध" केवल जैविक या सामाजिक नहीं, बल्कि आत्मिक भी होता है। इसी दृष्टिकोण से रक्षाबंधन को देखा जाए, तो यह उत्सव केवल एक धागे का बंधन नहीं, बल्कि "धर्म", "कर्तव्य" और "करुणा" का प्रतीक है।
भारतीय चिंतन में "रक्षा" का अर्थ केवल बाह्य सुरक्षा नहीं, बल्कि आंतरिक, मानसिक, नैतिक और सांस्कृतिक रक्षा भी है। यह त्यौहार दर्शाता है कि समाज की रक्षा तभी संभव है जब हम पारिवारिक मूल्यों की रक्षा करें। "रक्षा" को व्यक्तिगत सुरक्षा के दायरे से निकालकर, सामाजिक सह-अस्तित्व की भावना में परिवर्तित करता है।
जब इंद्र असुरों से पराजित हो रहे थे, तब उनकी पत्नी इंद्राणी ने रक्षासूत्र तैयार कर उनके हाथ पर बाँधा और प्रार्थना की- यह सूत्र उन्हें विजय और रक्षा प्रदान करे।तब से रक्षासूत्र की परंपरा का आरंभ माना गया।
जब श्रीकृष्ण को शिशुपाल वध में हाथ में चोट आई, तब द्रौपदी ने अपनी साड़ी का अंश फाड़कर उनके हाथ पर बांधा । इस छोटे से कार्य के प्रति कृष्ण ने जीवनभर रक्षा का वचन निभाया। यह कर्म-बंधन, प्रेम और समर्पण का उच्चतम उदाहरण है।
जब राजा बलि ने वचन दिया कि भगवान विष्णु को अपने साथ रखेंगे, तब लक्ष्मीजी ने रक्षाबंधन का धागा बाँधकर बलि को भाई बनाया। यह उदाहरण इस पर्व की आध्यात्मिक और सामाजिक दोनों ही ताकत को दर्शाता है।
महर्षि अरविंद का मानना था कि "भारतीय त्यौहार केवल परंपरा नहीं, चेतना के विकास के साधन हैं। रक्षाबंधन आत्मा की रक्षा का प्रतीक है, जहां एक-दूसरे के धर्म, मूल्य और स्वतंत्रता की रक्षा होती है।”
आज की बहनें डॉक्टर, सैनिक, वैज्ञानिक और शिक्षक बन समाज की रक्षा कर रही हैं। ऐसे में रक्षाबंधन केवल एक 'पुरुष-प्रधान' विचार नहीं, बल्कि परस्पर रक्षा और सम्मान का उत्सव बन जाता है। जब वह स्वयं रक्षक बन रही है, तब रक्षाबंधन उसे केवल “संरक्षण की धारा” तक सीमित नहीं रखता, बल्कि वह समाज, परिवार और राष्ट्र की रक्षक बनकर नेतृत्व करने में अग्रणी है।
संतों और विचारकों की दृष्टि में रक्षाबंधन भारत के एकीकरण का संदेश भी देता है। बंगाल के विभाजन के समय रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने रक्षाबंधन को हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के रूप में प्रयोग किया। उन्होंने लोगों से आह्वान किया कि वे एक-दूसरे की कलाई पर राखी बाँधें और देश की रक्षा का संकल्प लें।यह सिद्ध करता है कि यह पर्व केवल पारिवारिक नहीं, राष्ट्रात्मक चेतना का भी वाहक बन सकता है।
रक्षाबंधन के सूत्र में, बंधे प्रेम के तार। सदियों से राखी बन रही,
निश्छल प्रेम का सहज आधार।।
न हो बस यह परंपरा केवल एक उपहार- सम्मान करो इस संस्कृति का यह श्रेष्ठ मूल्यों का सार।।
डाॅ.कंचन मखीजा
रोहतक, हरियाणा